पंडित रघुनंदन समाधिया प्रधान संपादक मां भगवती टाइम्स
देवास। मेरे एक परिचित अस्पताल में भर्ती थे, मैं उनको उनकी आवश्यकता का कुछ सामान देने पहुंचा तो देखे बहुत सारे लोग उस छोटे से कमरे में जमे हुए थे और मस्त कचौरी, समोसे और चाय का लुत्फ उठाया जा रहा था, एक सज्जन तो मरीज के पलंग पर ही विराजमान थे, जोर जोर से बातें हो रही थी, कमरे में रखी डस्टबिन खाद्य सामग्री, उसके रैपर, चाय के खाली कप, आदि से भरी पड़ी थी, इधर उधर कुछ फूल भी बिखरे पड़े थे, यह सब देखकर मन वितृष्णा से भर गया ।
उनकी बातचीत के कुछ जुमले जो मेरे कानों में पड़े वो कुछ इस तरह के थे कि यार कहां इस अस्पताल में आ गए, एक बार पूछ तो लेते, यहां से आजतक कोई ठीक होकर गया है क्या, अरे ये तुम्हारा डॉक्टर वही है ना जिसने शर्मा के चाचा का केस बिगाड़ दिया था, मेरे सीहोर वाले मामाजी को भी यही बीमारी थी बच्चों ने बहुत इलाज करवाया लेकिन चल बसे, अरे यार चिंता मत करो हमारे टीकमगढ़ वाले वैद्य जी को खबर कर दी है मेरा भांजा एक दो दिन में आने वाला है वो दवाई लेता आएगा, शर्तिया ग्यारण्टेड इलाज है, ना जाने कितने मरीज ठीक हो चूके हैं, और इसी तरह की अन्य बातें ।
अच्छा चलते हैं यार, मुन्ना पापा की खबर देते रहना, कोई चिंता मत करना कहते हुए एक एक कर सब चल दिये और खाली स्थान भरने को अन्य लोग आ गए फिर वही चाय पानी नाश्ता का दौर और क्या हुआ कैसे हुआ का टेप रिवाइंड करके प्ले होने लगा । मेरे विचार में मरीज को देखने जाना हमारे समाज में प्रचलित एक कुरीति है । इस आवाजाही से किसीको कोई फायदा नही होता अलबत्ता मरीज और उसके परिजन परेशान ही होते हैं ।
अस्पताल प्रशासन को भी असुविधा का सामना करना पड़ता है, ऊंची आवाजों से अन्य मरीजों को भी परेशानी होती है । इस देखने वाली प्रक्रिया में सामान्यतया जिस तरह की बातें होती है उससे मरीज को कोई नैतिक या मानसिक सम्बल तो कतई नही मिलता उल्टे उसके मन में नकारात्मक भाव उठने लगते हैं ।
बस यूँ ही देखने जाना वाली प्रथा एक रस्म अदायगी भर है जो ज्यादातर लोग बेमन से निभाते है, यार आज तो जाना ही पड़ेगा, तीन दिन हो गए है, क्या बोलेंगे वो कि गुड्डू एक बार देखने भी नहीं आया आज ऑफिस से आते वक्त उधर होते हुए आऊंगा । और हाँ यदि इस सबके बावजूद भी आप रस्म अदायगी या लोकलाज के कारण मरीज के पास जा ही रहें हैं तो ध्यान रखें कि आपके पास कोई प्रमाणित ज्ञान है तो ही वो आप शेयर करें । वैद्य हकीम बाबा आदि इत्यादि के बारे में सुनी सुनाई बातें वाट्सएप की तरह फारवर्ड ना करें, और कृपया निगेटिव बातें तो कदापि ना करें ।
उनके डाक्टर या अस्पताल की असफलता की सुनी सुनाई कहानियां सुनाकर मरीज और उनके परिजनों के मनोबल को ना तोड़ें । वैज्ञानिक रूप से समझें तो आप अपने साथ कई प्रकार के बैक्टेरिया लेकर हस्पताल जाते है जो इंफेक्शन फैला सकते हैं । और हस्पताल से लौटते समय आप कई बैक्टेरिया अपने साथ लेकर आते है जो आपको और आपके परिजनों को नुकसान पहुंचा सकते हैं ।
हाँ यदि आप मरीज या उनके परिजनों की कोई मदद कर सकते हैं जैसे रक्तदान, नियमित भोजन व्यवस्था, रात को अस्पताल में मदद के लिए ठहरना, कोई आवश्यक दवाई बाहर से मंगवाना, कोई आर्थिक मदद, अस्पताल में अपने संबंधों का उपयोग कर कोई सुविधा या डिस्काउंट, परिजनों के रहने की व्यवस्था, लोकल टॉन्सपोर्ट आदि इत्यादि तो जरूर करिये, उनके मदद मांगने का इंतजार मत करिए ।
मेरे विचार में हमें यह एक साहसी कदम उठाना ही चाहिए, यूँही बेमतलब मरीज को सिर्फ औपचारिकता निभाने को देखने जाना बंद करना चाहिए । मरीज स्वास्थ्य लाभ कर ले तब घर जाकर उससे व परिजनों से सामान्य मुलाकात की जा सकती है, सामान्य बातचीत करें बीमार और इलाज के बारे में कुरेद कुरेद कर ना पूछे । यदि बहुत नजदीकी सम्बन्ध ना हों तो खर्च के बारे में बात ना करें । मेरी बात समझ आये तो अमल में लाये और अपने सर्कल में शेयर करें
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